...

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" हमें क्या हासिल "
" हमें क्या हासिल..? "

मैं और मेरी दुनियाँ और उसमें बसी
बेइंतहा ख़ामोशी ओढ़े हुई तन्हाई..!
मूक-बधिर सी जिन्दगी में हमें क्या हासिल..?

कहने को परिवार बसाएँ हैं मगर हमें
क्या हासिल..?
जहाँ किसी को अपनापन देने के
बावजूद भी कोई अपना ही नहीं है..!

भोर से रात तक खुद को जिम्मेदारियों
और फ़र्ज़ की चक्की में पीसने के बाद
भी आप उनके लिए उपयोगी संसाधन
मात्र रह जाते हैं..!

नौकरानी तुल्य जो सबकी जरूरत पूरी कर अपना कर्तव्य निभाने से ज्यादा कुछ नहीं होती है वो भी मुफ़्त में, जिसे कोई त्यागना नहीं चाहता है परंतु कोई भी व्यक्ति उसे प्यार से अपनापन एवं सम्मान नहीं देता..!
ऐसे रिश्तों को निभाने से भला हमें क्या हासिल..?

जिन्हें हम ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाते और ताउम्र सहेजने में बिताते हैं एवं उन्हें तन्हाई में या मझदार में कभी भी छोड़ते नहीं वो बड़े होने पर आपको यह एहसास करवाने से कब चूकते कि उन्हें अब हमारी जरूरत नहीं है..?

वो अपने फ़ैसले खुद ले सकते हैं और हमारी अवहेलना की जाती है..!
जिनके बलबूते पर आज वो एक सम्मानजनक ओहदों पर पहुंचते हैं उन्हें ही बोझिल होने के एहसासों से देखा एवं जताया जाता है..!

मैं अपने अनुभव से कहती हूँ कि वो खुद को धन्य समझें जिनकी कोख सूनी रह गई या जो संतान के सुख से वंचित रह गए हैं..!

आपकी रुस्वाई और इन सन्तान के सितम जनने वाली कोख के लिए अभिशाप साबित होता है..!

ईश्वर ने कुछ समय मुझे भी औलाद से वंचित रखा था मगर मैं ने ईश्वर को बहुत कोसा की मेरे आँगन में किलकारी क्यूँ नहीं गूंजती है..?

बहुत मन्नत मांगी गई कि मेरी आस पूरी हो..!
आज बहुत पछतावे के साथ जीना पड़ता है..!

आप इन्हें कितने ही अच्छे संस्कार दें किसी काम की नहीं, कितने ही जतन किए हों आप इनकी तमाम जरूरतों को पूरा करने के वास्ते सब व्यर्थ हो जाता है..!

वो जब आपके अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि हमने कहा था कि ' हमें पैदा करो..!'

इससे ज्यादा भयावह कुछ और नहीं हो सकता अगर आपकी पलकें भींगी और दिल दर्द से कराह उठे, तो यह कहते हुए आपको एक और चुभती/पिघलते हुए शीशा आपके कानों में उडेल दिया जाता है कि ' बंद करो
हम पर यह भावनात्मक अत्याचार, और अपनी नौटंकी '..!
यह आपके प्रिय संतान की कठोर भाषा आपके प्रति होती है..!

दो घड़ी के लिए भी वो आपके पास आएँगे और ना ही सीधे मुँह से दो बातें अच्छी करेंगे..!
सारी दुनियाँ के लिए इनके पास वक़्त ही वक़्त होता है और उनके लिए हाजिर होंगे, नहीं होंगे तो अपने पालनहार के लिए..!

सारी जिंदगी औरत अभिभावक और पति के अधीन रहे फिर संतान के..!
औरत अपने लिए कब जीवन जीती है..?
औरत को कौन खुद के लिए जीने का अधिकार देता है..?
वह तो कठपुतली की तरह हर किसी के इशारे पर चलती है..!

अपने खून से इन रिश्तों को सींचने से और अपनी ममता लुटाने पर हमें क्या हासिल..?

परिवार जिसके लिए आप भरसक प्रयास करते हैं सारा जीवन एकजुटता में रहें वह अपनी आँखों के सामने बिखरा हुआ मिलता है..!

आपका त्याग, संघर्ष, एवं प्रयास करना यह सोचना कि अपनों के लिए कर रहे हैं अंधे होकर खुद को निचोड़ देते हैं और इसके एवज में जब आँखें खुलती हैं तब समझ आता है कि हम तो बेगानों में हैं..!

ऐसे रिश्तों में क्या रखा है और इस से हमें क्या हासिल..?
सबके बीच हो जाएँ ठुकराए से, तो जीवित होने से भला हमें क्या हासिल..?

घर की चार दीवारी में अपना दम घोंट कर जीने से अच्छा है कि कहीं किसी आश्रम में आश्रय लें जहाँ अपने कंबख़त दिल को यह समझा सकें कि " तुम अनाथ हो " इस जग में कोई नहीं तुम्हारा..!

रिश्तों के बीच रहकर अपना अपमान सहने से बेहतर है कि उन्हें त्याग दिया जाए और अपने सम्मान की रक्षा हेतु पलायन कर लिया जाए, जहाँ माहौल में खुल कर कम से कम आजादी की स्वांसें लीं जाए..!

अपने कंधों पर से बेग़ैरत रिश्तों के बोझ को निभाने की मजबूरी से हमें क्या हासिल..?

मरणोपरांत तो कोई भी क्रिया कर्म करा दें..
इस दिन के लिए भला औलादों को अपना वारिस बनाने से हमें क्या हासिल..?

वो किस बात का ग़म क्यूँ मनाते हैं कि उनका जमाने में कोई नहीं,
बहुत आघात और पीड़ाओं से बचे रहते हैं वो बड़े खुशनसीब हैं ऐसे लोग..!

🥀 teres@lways 🥀