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कुछ भी पता नहीं
"घुटन सी है
आज के
इस मौसम में,
एक अबूझ
सन्नाटे से
भयभीत हूं।
जाने क्यों
"आशा"
निराशा में
बदलती सी
प्रतीत हो रही है,
यह जीवन
अब एक उबाऊ
सफर के समान
लगता है।
दिन प्रतिदिन
खुद से पूछता हूं,
क्यों होता है ऐसा?
पता नहीं,
कुछ भी पता नहीं।"
क्यों होता है ऐसा?
© देवेन्द्र कुमार सिंह
आज के
इस मौसम में,
एक अबूझ
सन्नाटे से
भयभीत हूं।
जाने क्यों
"आशा"
निराशा में
बदलती सी
प्रतीत हो रही है,
यह जीवन
अब एक उबाऊ
सफर के समान
लगता है।
दिन प्रतिदिन
खुद से पूछता हूं,
क्यों होता है ऐसा?
पता नहीं,
कुछ भी पता नहीं।"
क्यों होता है ऐसा?
© देवेन्द्र कुमार सिंह
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