...

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वह दोहरा था
वह दोहरा ही बना था
उस दोहरे में ईमानदारी भी थी मगर
पुट देती कुछ दगाबाजी भी
वह कुछ ही पलों के अंतराल से
तथ्यों को पढ़ सोच विचार लेता
अपने व्यक्तित्व को बदलने में माहिर था
उसका प्यार कब नफरत से भर उठता
और बदल उठती पुनः उसकी सोच दशा
कस लेता कमर और
दगाबाजी की राह पे जाने कब उतर पड़ता
रौशन होते घर को
जलाकर ख़ाक़ करने में क्षण न लगते
पछताता पर छल, छल चुके होते
जब दया से द्रवित हो जाती आत्मा
पढ़ लेती निर्दोषता को
रक्षा को हो जाता तब व्याकुल
प्राणों की आहूति देने को हो जाता तत्पर
कब कैसा सत्य नजरों में उसकी भासता
कह नहीं सकता था कोई
किंतु वह सदा अपने ही सत्य का था पक्षधर
इस कारण तर्क किसी के स्वीकारता भी नहीं.
© सुशील पवार