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रिश्ते
गहराई थी बहुत
कदम हवा में रखने थे
रिश्ते नाज़ुक थे बहुत
कांच से सहेजने थे।
चलन ये ही ज़माना का
अब शिकवा करें भी तो क्या
जो हमदर्द बन कर मिला
वो ही दर्द का सबब है बना।
टूटा जब कोई रिश्ता
वो घाव दे कर ही गया
कोशिश की लाख न दुखे दिल
किसी हालत पर ये पत्थर न हुआ।
जो बचे थे वो भी
ज़माने की हवा में दूर हो गए हैं
देख कर करते हैं अनदेखा
बड़े मगरुर हो गए हैं ।
सांस ले ली जिस लम्हें
बस वो ही अपना सा हुआ
जो छूट गया वो बेगाना था
उसे बेहतरी के लिए भूलना ही भला।
© Geeta Dhulia
कदम हवा में रखने थे
रिश्ते नाज़ुक थे बहुत
कांच से सहेजने थे।
चलन ये ही ज़माना का
अब शिकवा करें भी तो क्या
जो हमदर्द बन कर मिला
वो ही दर्द का सबब है बना।
टूटा जब कोई रिश्ता
वो घाव दे कर ही गया
कोशिश की लाख न दुखे दिल
किसी हालत पर ये पत्थर न हुआ।
जो बचे थे वो भी
ज़माने की हवा में दूर हो गए हैं
देख कर करते हैं अनदेखा
बड़े मगरुर हो गए हैं ।
सांस ले ली जिस लम्हें
बस वो ही अपना सा हुआ
जो छूट गया वो बेगाना था
उसे बेहतरी के लिए भूलना ही भला।
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