...

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मन
जब आग लगी हो सीने में ।
तो धुंआ क्यू नही उठता है ।
जब दर्द भरा हो अंतर्मन ।
आंखो तक क्यू नही आता है ।
मैं सोच रही मैं समझ रही है ।
ये जीवन ही एक झंझट है ।
या झंझट में ही जीवन है ।
मैं समझ गई मैं सुलझ गई।
सब बातो का ही झमेला है ।
बातो से ही सब अपना है ।
बातो से ही सब सपना है ।
फिर सपने की क्या बात कहू।
कहां आरंभ , कहां अंत हुआ ।
यह मंजिल का ही मांजरा है ।
जिसमे उलझा जग सारा है ।
तन मन सब एक और चले ।
बस एक गली एक रास्ता हो।
कोई दिन मै तो कोई रात में तो ।
आंखो से नीद को ही दिया ।
सपनो को अपना करने में ।
खुद को गहराई में डूबा ही दिया ।
किंतु कोई संदेह नही।
मिलकर एक दिन मंजिल से हम।
उछलेंगे , और चमकेंगे भी ।
बदलेंगे रंग जमाने के ।।
कुछ अपनो के कुछ गेरो के ।



© Sarthak writings