...

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सबको पहचानने लगी हूँ

ख्वाब से अब जरा जगने लगी हूँ
जिन्दगी को बेहतर समझने लगी हूँ.
उड़ती थी शायद कभी ऊंचा हवा में
जमी पर अब पैदल चलने लगी हूँ.
लफ्जो की मुझको जरुरत नहीं है
चेहरो को जब से पढ़ने लगी हूँ.

ख्वाब से अब ज़रा जगने लगी हूँ
जब से सबको समझने लगी हूँ.
झूठे लोगों की मुझे जरुरत नहीं है
सच्चे प्यार को अब समझने लगी हूँ.
लड़खड़ाती थी शायद जिनसे पहले
उसे अब परखने लगी हूँ.
ख्वाब से अब ज़रा जगने लगी हूँ.
लोगों को जब से समझने लगी हूँ..
-Pragya 💕