...

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ख़ामोशी रात की
क्या रात को शहर खामोशी की चादर ओढ़ कर सोता है ?
नहीं नहीं अंधेरी गलियों में अपने हाल पर फूट फूट कर रोता है..

जो ज़ुल्म ओ सितम वो हर एक मोड़ पर सहता है ...
वो दास्तां बस आहें भर भर कर ज़िंदगी से कहता है ...

नज़र हर एक बस उसकी चका चौंध पर रखता है..
मगर उसके पस मंज़र को भला कौन समझता है ...

किस क़दर पसरा हुआ है सन्नाटा दूर तलक रात की चादर में ...
सुबह में उसके सीने पर दौड़ता दर्द कहां भला सुनाई देता है ...

© sydakhtrr