...

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कोरा भ्रम
जंगली घास सी जिंदगी,
अंत केलिए बढ़ती रही पल पल।
भूलकर अपनी पसंदगी,
करती ताउम्र छल,जाने को जल।

हड्डियों का महज़ ढांचा,
जिसे सब "कनखियों" से जांचा।
मिले कुछेक "अवशेष",
वो भी नहीं देखिए थे पर विशेष।

फ़ानी सा है रैन बसेरा,
जाना अति दूर,जाने कहाँ "डेरा"?
तुच्छ काया एवं माया,
दोनों ने अपने "जाल" में फंसाया।

भ्रम से न पाये निकल,
हंसे शीशा न देख अपनी "शक्ल"।
सभी कुछ था नदारद,
"गिल"थे वहीं पे आमंत्रित सादर।
© Navneet Gill