...

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शामें...
कितनी बितायीं शामें हमने,‌ रंग भरी महफिल-महफिल...
पर अब हसीन उन शामों से, तन्हा रह जाना बेहतर है।

हर्फ़-हर्फ़ बतलाया हमने, हाल-ए-दिल सबको अपना...
पर अब यकीं सब पर करने से, कुछ न कह पाना बेहतर है।

लफ्ज़ों से ही ढहा दिए, कितने महल गुरूरों के...
पर अब कटाक्ष कोई करने से, खुद ही ढह जाना बेहतर है।

दमन का हर प्रतिकार किया,कब सहना हमने सीखा था...
पर अब विरोध कोई करने से, सब कुछ सह जाना बेहतर है।

अटल रहे अपने मन पर, ना कोई हमको डिगा सका...
पर अब तटस्थ मन रहने से, यूं ही बह जाना बेहतर है।

कितनी बितायीं शामें हमने,‌ रंग भरी महफिल-महफिल...
पर अब हसीन उन शामों से, तन्हा रह जाना बेहतर है।


© random_kahaniyaan

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