...

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पशोपेश..
बड़ी पशोपेश में रहा उससे बिछडकर
न मालूम ख़ुद से खुश, कि रूठा हूँ मैं...

मेरा अक्स न दिखता है, आईने में भी
जाने ख़ुद से मिल चुका कि छूटा हूँ मैं...

बयां न किया ख़ुद का किस्सा भी मैंने
ख़ुद में अंदर सिमट गया कि टूटा हूँ मैं...

इकट्ठा किया जो भी बचा था मेरे पास
देखें तो, सौगात मिली है कि लूटा हूँ मैं...

मेरी दलील भी तो सुनी होती दुनिया ने
पता तो चलता सच्चा हूँ, कि झूठा हूँ मैं...

जानूँ तो मेरे साथ हुए हादसों का सबब
सबके ही जैसा हूँ कि कोई अनूठा हूँ मैं...


वो जो दिखते हैं, हसी हसी में आँसू मेरे
क्या कहूँ, कि ज़ब्त हुआ कि फूटा हूँ मैं...

तुझे क्या लगता है मुझे देखकर 'नवीन'
कोई सूखा शजर कि खिलता बूटा हूँ मैं...
© Naveen Saraswat

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