...

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⚠धरा की चेतावनी⚠
सो चुकी है सभ्यता सारी,
कितनी अच्छी बात है ।
परवाह इन्हें न धरती की है,
यह कितनी निष्ठुर बात है।

जाग जाओ है मनु ,
तेरे विवेक को पुकार है।
देख रहा क्या इस धरती को तू !
यह बेचारी लाचार है ।

(ये धरती मां बोल रही है:)

विनती तुमसे बहुत की थी मैंने ,
अब दर्द से चीख रही -चिल्ला रही ।
निर्वस्त्र हो रही अब तो मैं ,
इस ब्रह्मांड में इज्जत खोते जा रही।

बड़े चमकते तारे अब,
इस बदन को झुलसा रहे,।
शीतलता जिन तरु से मिलती ,
वह सब उखड़ते जा रहे।

आकर्षण की बातें थी मुझमें,
नीलमणि जड़ा था मुझमें।
जल मेरा बहुत शीतल था,
मानो स्वर्ग बसा था मुझमे।

ज्ञानियों की में मां बनी ,
कई वीरो की थी शय्या में ।
साधुओं की मैं पुत्री थी और,
खुद अनेक जीवो की हूं मैया मै।

पर पुत्र देखो ना! क्या हुआ ,
हाल बहुत बदहाल है ।
जलस्तर मेरा घट चुका है ,
मेरे कई पुत्र बेहाल हैं ।

कारण सब जानते हैं ,
आखिर जड़ समस्या का है कौन ,
वह भी मेरे अपने हैं
क्योकि मां हूं ,
इसलिए हूं मैं मौन।

पुत्रों में भी पुत्र प्रेम ,
हद से ज्यादा मिला तुम्हें ।
पर अहम तुम्हारा बढ़ चुका है ,
दंड मिलेगा अब तुम्हें ।

देखा अब कैसी विपदा आएगी,
देख-देख तू मर जाए ।
प्रकृति के साथ है खेला तूने,
आखें देख झुलस जाय ।

हिमपात पिघलेंगे ,
ताप बढ़ता जाएगा ।
प्राणवायु अब जान लेंगे
और हर एक जीव मरता जाएगा ।

अब ये रूप भद्रकाली का है ,
मेरे देख आंख में ज्वाला है।
डर जाओ!
डर जाओ!
ओ! अहंकारी ,
मेरा यह प्रचंड रूप अती काला है।

© श्रीहरि