...

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रिहाई रूह की मुमकिन हो कैसे
ज़िंदान ए रूह से रिहाई नही चाहिए मुझको...
तलब है इश्क की तवज्जो चाहिए मुझको...
गिला भी तुझसे और मरहम भी तुझसे ही चाहिए मुझको...
तू है तलब और इसको सुकून भी तुझसे ही चाहिए मुझको...
क्या कहूं ख़ाक हूं और तेरा ही आसरा चाहिए मुझको...
ता उम्र रहूंगा तुझमें मिला ऐसा ही साथ चाहिए मुझको...
कोई क्या मुकाबला करेगा मेरी इस आरज़ू का अख़्तर...
अगर हूं मैं जिस्म तो कफ़न ए इश्क़ में तू ही चाहिए मुझको ....
© sydakhtrr