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हरि कृपा
मन तू काहूं से काहे डरे।
ध्याउ वाहि प्रभु को हिय से, जो सब दुख पीर हरे।
मित्र सुदामा लागि जगत हरि, नंगे पग दौड़ पड़े।
भक्त प्रह्लाद की प्राण बचायो, नरसिंह रूप धरे।
आन धर्म की संकट घिरी तब, अर्जून-पार्थ चले।
ताहि चरण रज की खातिर गज, मस्तक धूरि धरे।
राणा भेज्यो विष का प्याला, मीरा लग अमृत भरे।
“मृत्युंजय” जाऊं न तजि शरण तिहारे, जो कोऊ प्राण हरे।

© मृत्युंजय तारकेश्वर दूबे।

© Mreetyunjay Tarakeshwar Dubey