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ओ री क़लम
// ओ री क़लम //

ओ री क़लम भटक रही हो कहा सागर पर्वत,
जन्मभूमि चहुं दिशा रिपू से निरंतर संघर्षरत;
पथ - पथ राष्ट्रभक्ति नित षड्यंत्रो से लतपथ,
तू प्रकृति रमणीय रुप से मंत्रमुग्ध नतमस्तक।

विचरण रुप- श्रृंगार के माया जाल स्वप्नलोक,
क़लम तू भटक धर्म पथ भूली लोक परलोक;
चंद सिक्कों में बिक रही छाया तुझ पर लोभ,
सत्य असत्य अनर्थ करे तेरी आत्म मौन मौत।

सुमन वन उपवन त्याग चेतन करले चितवन,
जाग्रत चित्त से राष्ट्रभक्ति उत्पन्न कर तन मन;
समय न सौम्य अनुकूल त्याग मोह-माया वन,
जननी- जन्मभूमि मान-सम्मान संकट सघन।

संस्कृति और सम्मान राष्ट्र प्राण- आत्माज्ञान,
नित कुठाराघात तनिक न करते मन परेशान?
अपमान पीड़ लोकलाज तृण मन न होत भान?
धरा फ़ाड़ समा जाऊं नहीं कहता स्वाभिमान?

आत्मग्लानि भरे तृण से कैसे जाएगी श्मसान?
शिखंडी चित ना पाता चिता अग्नि में सम्मान,
अरे जाग उठ जाग्रत कर चित्त- आत्मसम्मान;
चल अग्निपथ रक्त- लत पथ पा ले तू सम्मान।

जननी- जन्मभूमि की बन स्वाभिमानी खड़ग,
बांध केसरी रणभूमि में डठजा खड़जा अडग;
अटक हो चुका समर्पण ना कर अर्पण कटक,
कौन जाने क्या करेंगे जो दिशा गये हों भटक।





© Nik🍁