...

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दृग को मलना क्या ?
सबके हिस्से की एक अनुपम दुनिया है
कांटों बीच सुसज्जित अनुपम कलियां है
गर आज समर्पित कर जाओ तुम अपना
कल के ऊहापोह से क्यूं विचलित होना

ज्यों आकाश धरातल माप रहा है दृष्टि में
विद्रूपता कितनी है कितना लावण्य भरा
सूक्ष्म जगत की सत्ता कितनी व्यापक है
बांह पकड़कर ले जाएगा ये स्थूल कहां

भिन्न बहुत अनुरक्ति में भी एक दूजे की
परिचित होकर रहे मगर अनभिज्ञ अधिक
भ्रमजाल को बुन अधिक अलंकृत करना
सत्य विमुख हो मोह के सन्निकट रहना

ये रंग है क्या एक चकाचौंध की श्रेणीभर
उमड़ घुमड़कर और अधिक तल्लीन हुए
मिल जाएगा समीप्य मगर अस्तित्व नहीं
उलझ गए कालांतर दृग को मलना क्या ?





© mjha