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निष्ठुर जग
पिंजरे की चिरैया,की देख छटपटाहट,
कौंधे बिजलियां,न बदले भाग्य की लिखावट।
कमज़ोर परवाज़,किसे देता आवाज़?
हो रहा शंखनाद,पहना कर गुलामी का ताज़।
थे बेईमानी से सजाये हुए "घोंसले",
करतीं पस्त मज़बूत "सलाखें"हरपल हौंसले।
बेबस होके आज़ादी की भीख मांगे,
लगा अट्टहास निष्ठुर जग वाले देख दूर भागे।
छज्जे,घर आँगन में जो थी फुदकती,
कतरे पंखों के संग भले वो भले कैसे उड़ती?
शिकारियों के जाल में क्या आ,फंसी,
कर आई विदा,"लबों"की मनमोहिनी हंसी।
अब लगा रही बस छोटी सी "गुहार",
"गिल"हे ! प्रभु खोल दो अब मुक्ति का द्वार।
© Navneet Gill
कौंधे बिजलियां,न बदले भाग्य की लिखावट।
कमज़ोर परवाज़,किसे देता आवाज़?
हो रहा शंखनाद,पहना कर गुलामी का ताज़।
थे बेईमानी से सजाये हुए "घोंसले",
करतीं पस्त मज़बूत "सलाखें"हरपल हौंसले।
बेबस होके आज़ादी की भीख मांगे,
लगा अट्टहास निष्ठुर जग वाले देख दूर भागे।
छज्जे,घर आँगन में जो थी फुदकती,
कतरे पंखों के संग भले वो भले कैसे उड़ती?
शिकारियों के जाल में क्या आ,फंसी,
कर आई विदा,"लबों"की मनमोहिनी हंसी।
अब लगा रही बस छोटी सी "गुहार",
"गिल"हे ! प्रभु खोल दो अब मुक्ति का द्वार।
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