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कभी मैं ही बन जाता हूँ "वो"
बेवजह हर पल मुस्कराता है "वो",
ना जाने कौन सा ग़म छुपाता है वो।
तकलीफों का बोझ अपने सर रख,
बहुत दूर तक चला जाता है "वो"।
कहना तो बहुत कुछ चाहता है,
पर थोड़ा सहम जाता है "वो"।
ख़ुद ही ख़ुद से सवाल करता,
जबाब ना मिलने पर मलाल करता।
आँखों में भरोसे का ख्वाब लेके,
रात दिन ख़ुद को जगाता है "वो"।
किसी के दुख से दुखी हो जाता,
खुशी में ग़म को अपने भूल जाता।
सब के साथ होने पर भी,
ख़ुद को अकेला पाता है "वो"।
यूँ तो वो कोई और नहीं,
कभी मैं ही बन जाता हूँ "वो"

© "नीर"

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