...

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अस्तित्व

जुदा-जुदा है विचारधारा,
जुदा जुदा है अस्तित्व हमारा!

निजता मेरी भी है,
निजता है तुम्हारी भी।
मैं,मैं हूंँ....तुम, तुम हो!

मैं ज़रा जुदा सी हूंँ...
अपनी सोच से अलहदा सी हूंँ!

न चाहूंँ किसी की निजता पर आधिपत्य,
न चाहूँ खुद पर भी किसी का अतिक्रमण...

चाहूंँ तो सिर्फ इतना कि,
मैं और तुम मिलकर हम बन जाएंँ।
अपने अपने व्यक्तित्व के साथ!

जो अपने अनुसार मैं तुम्हें ढाल दूंँ,
तो तुम में तुम्हारा बचेगा क्या?
और तुम्हारे अनुरूप ही मैं
जो बन जाऊंँ,
तो अस्तित्व विहीन मैं खो जाऊँगी कहीं!

स्वीकारोक्ति चाहूंँ अपनाने की,
जैसी मैं हूंँ,
स्वीकारना चाहूंँ तुम्हें भी...जैसे तुम हो।

अस्तित्व तुम तुम्हारा कायम रखो,
अस्तित्व मैं भी मेरा कायम रखूँ।