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कुदरत के करिश्में
क़ुदरत के करिश्में को देख कर दंग हो जाती हूँ
उसके करिश्में के आगे नतमस्तक हो जाती हूँ
कोई तो अदृश्य शक्ति है
जिसके आगे हम सभी नतमस्तक हैं
इसी सोच में अक्सर डूब जाती हूँ
ईश्वर को सृस्टि की इस
कारिगरी के लिए ईश्वर को
धन्यवाद कह जाती हूँ
कैसे की होगी कारिगरी
कैसे रूप रँग भिन्न भिन्न बनाए होंगे
इंसाँ तो इंसाँ प्रकृति में भी
भीन्न भिन्न रूप रँगों की रूप रेखा
खींची होगी
इसी सोच में अक्सर मैं डूब जाती हूँ
अपनी ही सोच को पहेली का नाम दे जाती हूँ
आसमाँ को तकती हूँ तो
उड़ते परिंदे से पूछा करती हूँ
बता तुझे ये पँख न दिए होते तो तू क्या करता
फिर सोचती हूँ पगली किससे बातें कर रही
वो तो तेरी भाषा भी नहीं समझते
तुझे ही तो इनकी सेवा करनी है
भाषा नहीं समझती तो क्या
दाना पानी की तुझे ही तो इनकी
व्यवस्था करनी है
ईश्वर की कारीगरी देख
मन ही मन सोचा करती हूँ
कल कल करते झरने नदियों की धुन में
रम ईश्वर से ही पूछा करती हूँ
हे ईश्वर कैसे सृस्टि का सृजन तूने किया होगा
इस सृजन को करने में
तुझे कितना समय लगा होगा
ये सोचकर दिल मेरा तो चकराता है
आज का वैज्ञानिक भी आपके
आगे हार मान जाता है
फिर भी इंसाँ अपने आपको
सुपर पावर समझ अहम में जीता है
आँखे तब खुलती हैं
जब चहुँ दिशा अंधकारमय दिखता है
ऐसा आखिर क्यों होता है
मानव क्यों नहीं समझता है
मज़हबी बातों को लेकर
अक्सर विवाद किया करता है
हे ईश्वर तू भी तो ऊपर बैठे बैठे
मानव रूपी कठपुतली नचाता है
अपनी ही बनाई सृष्टि का आनन्द ले
कर्मों की सजा भी सुनाता है
हे ईश्वर तू भी क्या क्या दिन दिखाता है
कभी राजा को रंक
तो कभी रंक को राजा बनाता है
इसी सोच में अक्सर डूब जाती हूँ
इन्ही सोच में डूब नित नई कहानी गढ़ जाती हूँ
बड़े पर्दे पे मानव फ़िल्म देखा करते हैं
ईश्वर भी अपने ही बनाए पर्दे पे
हमें देखा करते हैं क्रिया कलाप का
सजीव चिरण देख कर्मों का लेखा जोखा
किया करते हैं
इसी सोच में अक्सर डूब जाती हूँ
नित नई कहानी गढ़ ईश्वर का
शुक्रिया अदा कर जाती हूँ
नित नई कहानी गढ़ ईश्वर का धन्यवाद कर जाती हूँ
© Manju Pandey Choubey