...

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भीतर के गलियारे
#AloneInCrowd

भीड़ इतनी है मेरे कमरे में,
की सरसों के दाने,
इतराते हैं खुद पे,
एक मैं ही हूं,
जो लोगो का साथ देख,
सहम जाती हूं खुद से,
कर्म की लेखा कहु,
या किस्मत की मार,
ना जाने क्यू नहीं होता कोई,
मेरी अर्जी सुनने को तैयार,
मर्जी अर्जी में बदल गई,
अब क्या ही सुपुर्ध करू,
अपने जीने का आधार,
शोर के उस भेंट में,
मेरे सन्नाटे दस्तक देते हैं,
अजीब तरबियत है मेरी,
मुझे तक आते आते,
सारे उसूल बदल जाते हैं,
फिर भी लालसा है मन में,
एक लालच की,
सब्र कर ले,
छोड़ दे तू भीड़,
ना कुछ सही अपने अंदर को,
कायनात को भर ले....
© --Amrita