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सत्ता की होड़
सत्ता की ये कैसी होड़ लगी है
सिंहासन की ओर लम्बी दौड़ लगी है
निकल आए हैं महलों के भी राजकुमार
जो कल तक थे बड़े सुकुमार
कड़कती धूप में
आज उनके भी वादों की झोड़ लगी है
सत्ता की ये कैसी होड़ लगी है

अब दिखती है उनको भी
गरीबी और बेरोजगारी
जो सुख से थे अपने महलों में बरसों
आज नज़र आईं उनको भी
बेचारी जनता की लाचारी
अब गरीबों के घर भी
उनको छोटे न दिखते हैं
साहबजादे झोपड़ियों में भी ढूकते हैं
बड़े - बड़े वादों की कुछ ऐसी होड़ लगी है
जनता बेचारी अब भी ठगी की ठगी है

कुछ है ऐसे भी राजनेता
जाति - पति के नाम पर ही
जो सिंहासन को है अपना कहता
बात ये बड़ी बेढंग है
की हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई
सबके अपने - अपने रंग है
इन रंगों से ही हर कोई इन्हें बांट देता
कुछ ऐसे भी है यहां राजनेता
जनता यहां जाति - पाति के रंग में रंगी है
सत्ता की ये कैसी होड़ लगी है

पर बात अब भी वहीं की वहीं खड़ी है
इस चुनावी मौसम के बाद
राजा की जनता से दूरी बड़ी है
फिर पांच साल क्या वो नज़र आयेंगे
किए है जो वादे
उन्हें कहां तक निभायेंगे
क्या सत्ता के नशे में
वो जनता तो न भुलायेंगे
जो शहजादे और राजनेता
घूम रहे हैं घर घर
क्या पहचानेंगे भी हमको
सत्ता पा जानें पर
क्या तब भी दिखेगी उन्हें
हमारी भूख और प्यास
क्या पूरे करेंगे वे सब वादे
जिनका दिलाया उन्होंने हमे विश्वास
क्या मिलेगी शिक्षा और मिलेगा इलाज
या अधूरी ही रहेगी हमारी आस
इसी कशमकश से घिरी
चुनाव की घड़ी है
सत्ता की ये कैसी होड़ लगी है

खैर उम्मीद सारी बेरंगी है
ये राजनीति भला हुई
कब किसकी सगी है
जनता बेचारी ठगी की ठगी है
सत्ता की ये कैसी होड़ लगी है
सिहांसन की ओर लम्बी दौड़ लगी है।
अंजली