...

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"परछाई"
नाराज़ है ज़िन्दगी ख़ुद से,
नहीं सुनना चाहती सच्चाई..!

यहाँ बुरे ही भले हैं,
किसी काम की नहीं अच्छाई..!

छोड़ रहे है साथ सभी,
हो रही है जगहँसाई..!

सुख में शामिल साया,
हाय! कैसी प्रभु की माया..!

प्रकाश(तरक्की) की दिशा में,
घटती बढ़ती रही परछाई..!

कर्मों को समझे थे कभी हम,
ख़ुद की गाढ़ी कमाई..!

दौलत के आगे नतमस्तक सभी,
बन गए ज़ालिम कसाई..!
© SHIVA KANT