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आत्म संगनी और मेरे मध्य संबंध
आत्म संगनी ओर मेरे बीच अब कोई पर्दा नहीं था। वोह मेरे ज़ख्म देख ,सुन चुकी थी ओर मैं उसके दर्द से वाकिफ था।इसी तरह हमारी कहानी के 100दिन कब गुजर गए हमें पता ही नही चला।

अब कोई दिन ऐसा नही गुजरता था जो हम अपने अपने हिस्से के दुख दर्द एक दूसरे को नही सुनाते हो।उसका मुझ पर अटूट विश्वास मेरी शक्ति बन गया था। मेरे रूठ जाने पर उसका जार कतार रोना, ओर रोते हुए चेहरा को दिखाना मेरे दिल को तकलीफ देता था।में कभी भी उसको तकलीफ ,दर्द,गम देना नही चाहता था.पर इंसानी फितरत से मजबूर था कभी कभी उसकी नादानियों पर क्षणिक भर का गुस्सा आना,उसके बहते आंसू देख कर पिघल जाना मेरा जीवन बन गया था।
उसका छत पर नहाकर निकलना,गीले बालों से बहते मोती उसके चेहरे पर जब फिसलते थे जो पल भर के लिए मन मस्तिष्क में ज्वार भाटा आजाता था।

में जानता था उसकी हासिल करना मेरा मकसद नहीं है क्योंकि वह किसी और के घर की जीनत थी,उसका यह भाव मुझे कभी भी बोझिल नही लगा कि वोह मेरी नही हो सकती। वोह चांद है और में चकोर।

उसकी जिंदगी में जो कमियां थी मैं उनसे परिचित था,मेरा हमेशा से यही प्रयास रहता था कि मैं उसकी आंखों में आंसू,उदास चेहरा,बोझिल जीवन को खुशियों से भरता रहूं। उसका मेरे प्रति समर्पण अब किसी अनजान की तरह न होकर अर्धांगनी की तरह बढ़ता चला गया।कब हम आत्मीयता की डोर से बंधते चले गए हमे अहसास ही नही हुआ।
© SYED KHALID QAIS