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ख़ुद से ख़ुद तक का सफ़र
सफ़र की हम ने जब शुरुआत की तो मंजिल को पाने से पहले, मेरे अंदर अनेक सवालों की उत्पत्ति हुई। सवालों के उत्तर से अंजान तो था जो एक प्रकार से लाज़िम भी है, परंतु सवालों की उत्पत्ति क्यों, ये एक सवाल और भी था। मैं और मेरा मित्र जो अभी-अभी अपने महाविद्यालय से स्नातक की पहली वर्ष की परीक्षा दिए थे, हमने मिलकर ये तय किया की हम दोनो एशिया महाद्वीप के सबसे बड़े मन्दिर, श्री राधा कृष्ण के मन्दिर मायापुर जो भारत के पश्चिम बंगाल मे स्थित है, (पश्चिम बंगाल का नाम में पश्चिम जुड़े होने से उसकी दिशा से उसका कोई जुड़ाव नहीं है, ये भारत के पूर्व दिशा की और मौजूद है।) वहाँ जायेंगे। कृष्ण भक्ति में शुरू से रूचि होने के कारण मै वहाँ जाने के लिए बहुत लालाहिक था, और मेरा मित्र भी।
सफ़र की शुरुआत हमलोगों को रिक्सा, बस और फिर ट्रेन से करनी थी और वो भी उस मन्दिर के निकटम् स्टेशन पहुँचने के लिए, वहाँ से आगे कैसे जना था, इससे हम दोनो अज्ञात थे। तो हमलोगों ने राधे कृष्ण कहकर सफ़र की शुरुआत कर दी। कहानी की शुरुआत मैने अपने मस्तिक मे जन्मे सवाल से की थी, जैसे ही मैने अपने कदम बस मे चड़ाये, और एक सीट खाली देखकर बैठा, अनेक सवालों ने मुझे घेर लिया, मानो मेरे अंदर से ही मुझसे कोई सवाल कर रहा हो और न मुझे उन सवालों की उत्पति का कारण पता था और न ही उत्तर, मैं अनिभिज्ञ था। मैं इन सवालों से डर कर भाग रहा था, क्योंकि न चाहते हुए भी वो मेरे मस्तिक को छली कर रहे थे, मैं कौन हूँ? मेरा परिचय क्या है और मेरा जीवन का उद्देश्य क्या है? शायद आपके मन में भी ये प्रश्न, ये विचार कभी न कभी आये होंगे। पर इसका जवाब दे पाना शायद मुठ्ठी भर लोगों से ही हो पाया है! अपने आप को भौतिक और अध्यात्मिक रूप से देख पाना, जान पाना ही तो जीवन का सही उद्देश्य होता है, और जो व्यक्ति दोनों, भौतिक और अध्यात्मिक रूप से अपने आप को जान जाता है, तो उसकी मानव जिंदगी सफल हो जाती है। इसी तरह से मेरे मस्तक में अनेक प्रश्नों की आवा जाहि जारी थी, मैं इन सवालों से जकड़ा हुआ था तभी एक आवाज़ आती है, "आकाश हावड़ा स्टेशन आ गया", हावड़ा से ही हमे नवादीप धाम की ट्रेन पकड़नी थी, और उसके आगे का सफ़र उस वक़्त मेरे लिए अंजान था। समय की कमी होने के कारण हमलोगों ने जल्दी जल्दी टिकट कटवाया और दौड़कर ट्रेन में चढ़ गए, परंतु मुझे थोड़ा अजीब लगा कि क्या हमारी ट्रेन सही है या नही, थोड़े देर असमंजश् में रहने के बाद मैने बड़ी हिम्मत से सामने वाले भैया से पूछ लिया "दादा ट्रेन नवादीप धाम जाएगी", उन्होंने ने कहा नहीं! हम गलती से दूसरी ट्रेन में चढ़ गए थे! तेजी से हम ट्रेन से उतरे क्योंकि हमें जिस ट्रेन से जाना था उसके खुलने का वक़्त हो चुका था, हम ने इंटरनेट पर देखा था हमारी ट्रेन की प्लेटफॉर्म संख्या वही थी जिसपे दूसरी ट्रेन लगी थी, हम ने आस पास के लोगों से नवादीप धाम जाने वाली ट्रेन के बारे मे पूछा तो एक भैया जी ने उसके सामने लगे दूसरे ट्रेन की ओर इशारा किया, हमनें तेजी से उस ट्रेन की तरफ़ बढ़ गए और खाली सीट देखकर उस पर बैठ गए। यहाँ तक का सफ़र आसान था, और सफ़र की जानकारी भी थी, पर सवाल इससे आगे जाने का था। सफ़र अंजान, राह अंजान, हम दोनों इसी मुद्दे पे बात कर रहे थे और ट्रेन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी।
ट्रेन की रफ़्तार से सबकुछ पीछे छूटता जा रहा था, और इससे मुझे एक बात समझ...