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नारी मन
"सुनो ....पार्वती आज भी नहीं आई।अब मुझे उसकी सच में फिक्र हो रही है, चलो एक बार उसके घर जा कर देख लेते हैं। शायद उसे हमारी मदद की जरूरत हो।" पति देव को चाय का कप पकड़ाते हुए मैंने कहा।
' फोन अभी भी बंद है क्या उसका? उन्होंने पूछा।
"हां जी ... काफ़ी ट्राई किया, बंद ही आ रहा है।"
' ठीक है , चलते हैं तुम तैयार हो जाओ।'
"बेटा बारिश का मौसम है। उसकी गली में काफ़ी कीचड़ होगा। संभल कर जाना।" मां ने हिदायत दी।
' आप फिक्र न करें मम्मा, हम ध्यान रखेंगे ' बेटे ने मां को आश्वस्त किया।

गली वाकई संकरी थी। बारिश में इसे पार करना पहाड़ चढ़ने से भी मुश्किल काम लग रहा था।
खैर जैसे तैसे फिसलते संभलते हम वहां पहुंचे तो पाया कि हमारी पति को परमेश्वर मानने वाली पार्वती को उसके भगवान ने अपने क्रोध रूपी प्रसाद से नवाजा हुआ था। सर पर गहरी चोट लगी हुई थी। बाजू पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था। हमें देखते ही उसके आंसू झर झर बहने लगे।

उसने रोते रोते बताया कि जो महीने में कर्ज की किस्त भरने के लिए पैसे जमा किए थे उसके पति ने सब उड़ा दिए। जब पूछा तो गुस्सा करने लगा। गालियां देने लगा। कहा सुनी के साथ हाथा पाई हो गई और उसने जोर से धक्का दिया और सर पर पास रखा मटका दे मारा ।
"ओहो। अब कहां है वो? पुलिस स्टेशन?" मैंने पूछा
' नहीं। मैडम जी, पुलिस स्टेशन काहे जायेगा। डर के मारे उस दिन से घर नहीं आया। ये तो पड़ोसी थे जो मुझ उठाकर समय पर सरकारी हॉस्पिटल ले गए और मैं बच गई ।' पार्वती की आवाज़ में कसक थी।
"हम तो रोज़ सुबह शाम फ़ोन कर रहे थे किसी ने फोन नहीं उठाया?"मैंने अपनी परेशानी बताई।

' जानती हूं मैडम,आपको काफ़ी मुश्किल हो रही होगी। आप तो जानते हो फोन तो उसके पास ही रहता है। उस दिन से उसने न तो कोई ख़बर ली और।न ही दी। पता नहीं कहां भूखा प्यासा भटक रहा होगा।' इतना सब होने के बावजूद भी उसके स्वर में चिंता साफ़ झलक रही थी।

"अब आए तो सीधा पुलिस को बुलाना।"मैंने बोला
' उस समय तो सोचा था मगर अब सोच रही हूं कि क्या ही होगा। कुत्ते की दुम है वो नहीं सुधरेगा।'
"छोड़ क्यों नहीं देती उसको?" मैंने पूछा
' क्या बात करती हो मैडम।ऐसे कैसे छोड़ दूं। जंग लगा ही सही घर का दरवाजा तो है जाने अनजाने जानवरों से बचाने के लिए।' वह मुझे देखते हुए बोली।
कभी कभी पार्वती की बातें अजीब लगती हैं मुझे मगर शायद उसका अनुभव बोलता है। उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया मैंने।उसे आराम की सलाह देकर ,कुछ नकद और खाने पीने का सामान दिलवा कर हम वापिस आ गए।

"पार्वती के साथ जो हुआ अच्छा नहीं हुआ। तुम्हें क्या लगता है। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ!" रास्ते में मैंने पूछा तो पति देव माहौल को हल्का बनाने की नियत से बोले
' मुझे लगता है उसे घर पर मटका नहीं रखना चाहिए था। ना मटका होता न उसका सर फूटता। मेरी मानो तुम भी रसोई घर से मटका उठा दो।'
"आप का हास्य विनोद इतने उच्च स्तर का भी नहीं है और तुम्हें क्या लगता है कि तुम में इतनी हिम्मत है कि तुम मुझ पर मटका फोड़ोगे या कभी हाथ उठाओगे ? मैंने खीजते हुए जवाब दिया।
' ये सब संस्कारों पर निर्भर करता है। मेरे अनुसार मारना हिम्मत का नहीं बुजदली का काम है।' वो अब संजीदा हो कर बोले।

"सुनो, अगर कभी हमारा झगड़ा हो जाए तो तुम बाहर चाहे चले जाना मगर फ़ोन स्विच ऑफ मत करना ।" मैंने घर पहुंच कर मैन डोर खोलते हुए कहा।
' ओके.. ठीक है मगर अगर बैटरी डैड हो जाए तो?' पतिदेव ने पूछा।
"ऐसे कैसे?फूल चार्ज करके जाना और रात से पहले घर आ जाना।"
' ठीक है फ़ोन ऑन रखूंगा, अगर तुम्हारी कॉल अटैंड नहीं करूं तो चलेगा क्या?'
वैसे तो उनकी हाजिर जवाबी बड़ी भाती है मुझे मगर जब मेरे आगे चलाते हैं तो जहर लगती है मुझे।
" ओहो... इतने चालाक बनने दूंगी मैं तुम्हें? एक तो पार्वती अब एक महीना आयेगी नहीं और ऊपर से ये तुम्हारी फालतू की बातें, मुझ से जरा बच कर रहना थोड़े दिन तुम " मैंने उन्हें हिदायत दी।
' ओहो, अब तो कुछ करना पड़ेगा....तुम परेशान मत हो, मैं अपने ऑफिस से गिरधर को भेज दूंगा, सुबह शाम तुम्हारी मदद कर देगा तुम रिलैक्स करो।' वो बोले।
"वाह! तुम वैसे इतने भी खराब नहीं हो..." ये बात सुन कर मैं काफ़ी रिलैक्स फील कर रही थी।
' अपने बारे में आपकी राय जान कर। काफ़ी अच्छा लगा मुझे, अब बड़ी प्यास लग रही है। जरा मटके से पानी ला दो ना...'
मटके का नाम सुनते ही मैंने अपनी आँखें तरेर कर कहा..
"खुद जा कर पी लो..."


© Geeta Dhulia