आत्म संगनी संग प्रेम अलाप:द्वेष ,अपनत्व या कुछ खोने का डर
हमारे आत्मीय संबंधों को अब एक लम्बा और संतोषजनक समय गुजर चुका था। इस मंत्रमुग्ध करने वाले समय में मेरी आत्म संगनी और मेरे बीच कोई भेद कोई दूरी नही बची थी। निश्चल निर्मल इस संबंध में वोह मुझे प्रियसी की भांति स्नेह करने लगी थी या यह कहो के उसने अपने आपको मुझमें समाहित ही कर लिया था। अब यह स्थिति हो गई थी कि वार्ता के अभाव में व्याकुलता बढ़ने लगती थी। भौतिक रूप से हम कोसों दूर थे लेकिन वास्तविकता में हम एक जान हो चुके थे।
जैसे जैसे हमारे संबंधों की प्रगड़ता बढ़ती जा रही थी,वैसे वैसे हम दोनों के बीच एक बात खल रही थी।
आत्मा का मिलन हो चुका था, संबंधों में जटिलता आचुकी थी पर एक अहसास हमेशा रहता था वह था बिछड़ने का डर।
आत्म संगनी जिस प्रकार का व्यवहार दिन प्रतिदिन कर रही थी उससे सैकड़ों मील की दूरी पल पल खत्म हो रही थी।अनायास ही ऐसा लगता था वह मेरे सामने है,मेरे साथ आलिंगन बद्ध है पूरी तन्मयता से हृदय स्थल पर शासित है। उसकी खुशबू उसकी चाहत उसकी आत्मा सब मुझमें समाहित हो चुकी थी। उसका बिना छुए संसर्ग शरीर में मौजूद व्याकुलता को और ज्यादा उत्तेजित करते थे।
अब यह स्थिति हो गई थी कि उसको मेरे आस पास किसी की भी मौजूदगी भी नागवार गुजरने लगी थी। अब उसमे मेरे प्रति समर्पण भाव स्नेह मिलन के अलावा एक नवीन भाव का जन्म हो गया था वह था मुझे खोने का डर। उस डर के फलस्वरूप अब वह हर उस चरित्र को संदेह की नजर से देखने लगी थी जो मेरे आस पास दिखता था। आत्म संगनी के जीवन में आया यह भाव राग द्वेष था या अपनत्व का उद्धरण।
जो भी हो उसका हर रूप मुझे मेरे जीवन में नया आयाम स्थापित कर रहा था।
में कृतज्ञ हूं तेरा मेरी आत्म संगनी।मेरी जिंदगी
© SYED KHALID QAIS