...

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सोच
पार्वती की चोट अभी ठीक नहीं हुई थी ,उसकी जगह तब से सुमित्रा काम कर रही है। उस दिन भी उसने अपना काम खत्म कर दिया था,घर जाने के लिए बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी।बारिश काफ़ी जबरदस्त थी।खीर मालपुओं की फरमाइश हुई तो हम उसमें व्यस्त हो गए।खीर बनाकर हमनें सबको गर्मा गर्म मालपुए देने शुरू किए। साथ ही सुमित्रा को भी खाने का आग्रह किया। उसने मना कर दिया। जब मजबरदस्ती उसे प्लेट में डाल कर देना चाहा तो वो हाथ जोड़ कर दो कदम दूर खड़ी होकर कहने लगी "नहीं भाभी,पाप लगेगा हमें..आप मालिक हो,आपसे पहले हम कैसे खा सकते हैं? "
मैंने अचरज से उसे देखा क्योंकि बचपन से आजतक कभी ऐसी बात नहीं सुनी थी ...हां टीवी या फिल्मों में जरुर देखा था।
"ऐसा कुछ नहीं है, सबके लिए बना कर मैं भी खा लूंगी,खा लो गरम गरम अच्छे लगेंगे, पार्वती भी खा लेती थी" मैंने जबरन उसके हाथों में प्लेट पकड़ाते हुए कहा।
"नहीं भाभी, आप तो हमारे अन्नदाता हो,हमारे संस्कार में नहीं है ये, आप मुझे दे दो ,घर जा कर खा लेंगे।"वो बोली
"अच्छा ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी" मैंने उसके लिए पैक कर दिए।
बारिश रुकी तो वो चली गई.. चली तो गई मगर एक खलबली सी मचा कर..हज़ारों प्रश्न मेरे जहन में छोड़ कर..
" क्या मैं सचमुच एक जागरूक समाज का हिस्सा हूं ? अपराध न होते हुए भी अपराध बोध महसूस कर रही हूं।खुद से सवाल जवाब का सिलसिला जारी है
क्यों मैं एक ऐसे समाज का प्रतिनिधत्व नहीं करती जहां काम, उम्र, जाति धर्म भाषा के नाम पर सब एक समान महसूस नहीं करते।
बार बार बचपन का समय याद आ रहा है जब खेतों में काम करने वाले मजदूरों को समय पर खाना देदिया जाता था ताकि वो अपना काम समय पर कर सकें, कभी ये इंतजार नहीं होता था कि घर वाले पहले खायेंगे और काम करने वाले वो लोग बाद में.. क्
तो क्या उस समय वो समाज ज्यादा समझदार और सहनशील लोगों का था.. या ये मालिक नौकर जैसी सोच सुमित्रा जैसे कुछ लोगों की केवल एक व्यक्तिगत सोच है ..
वजह कोई भी हो, मन ऐसी सोच से परेशान है....

© Geeta Dhulia