...

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काश!
काश! हद-ए-उल्फत से इस क़दर कभी गुज़रती वो,
चिलमन-ए-निग़ाह में लिए ख्वाब, मेरे लिए संवरती वो।

हर इक अदा पर उसकी, होता फ़िदा मैं कतरा-कतरा,
अदा-ए-हया-ए-बेहिसाब, बाहों में यूँ मचलती वो।

निगाह हटती न रुख़सार-ए-यार से, तड़पती तमन्ना,
इस तरह तमन्नाओं में होकर बेख़ुद, बहकती वो।
© विवेक पाठक