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यह कौम कैसी मनुष्यता की
यह कौम कैसी मनुष्यता की
या फिर कहूं कि हरकतें देख इनकी पागलों सी
चाह के भी बदल सकती नहीं राह
विवशता हैं अज्ञानता की
वासना से भरी धूत
चड़ी जातीं है पागलों सी
सोच सकती नहीं कुछ और
राह ही जो भरी हो, मंजिल वासना की
कुछ और अगर उठ आते हैं सवाल
तो धर्मांधता की चल पड़ते हैं तूफान
आंखें किये लाल जूबान पे तकरार
अपशब्दों की भरमार, करते मार
तलवारें बंदूक पिस्टल चल पड़ते सभी
कत्ल ओ गारत के सिवा
रह न जाती फिर कोई बात
मांस भक्षी अथवा शुद्ध शाकाहारियों की
इनकी तहजीबें न रोकती इन्हें
जाने कौन से भूत इन पे सवार है
दंगे करते फसाद नेतागिरी के उस्ताद
चाहिए इन्हें बातों से सिंकती रोटियां
हर तरफ उठाते बवाल और आग ही के जाल
बन जाते राजे महाराजे लुटती फौजें इनकी
परवाह क्यों करें ये किसी की, जो चाहिए
इन्हें भरी भरी धन यौवन बोरियां
नश्वरता के तांडव में थिरक रहे सभी
कैसे साधे कोई ऊंची रख दिल में आकांक्षा....।






© सुशील पवार