...

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पत्थर के आंसू
ऐ स्त्री...
तुम समेट लेना उस पिघलते पत्थर को
ये विरला ही देखने को मिलता है, कि
कोई पुरुष टूट कर रो दे,

तुम समेट लेना उन अश्रुओं के मोतियों को
और खुद को भाग्यशाली समझना कि
तुम साखी हो उस टूटे मोतियों की।

पिरो लेना माला तुम उन अश्रु माणिकों की
नहीं मिलते ये बेशकीमती रत्न किसी स्वर्णकार के,

यों ही नहीं नसीब होते ये मोती बिखरते है
किसी टूटे ऐतबार से।

ऐ स्त्री....
तुम साखी हो उस स्याह रात की, जब
कोई खुद में स्याह हो रहा था,

तुम साखी हो उस दर्द के उमड़ते सैलाब की,
जिसमें कोई पाषाण हृदय पिघल रहा था।

चेतन घणावत स.मा.
साखी साहित्यिक मंच, राजस्थान
© Mchet043