...

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भोर का तारा
भोर का तारा जब जागे
सुनहरी किरण आ पुछती हर किसी से
अब तो दुखती नहीं देह
जादू इक यही तो मेरे आलिंगन का
यथार्थ के धरातल में

चमत्कार कहना ही चाहो तो कहो
देह में भरने लगती है अग्नि रश्मियां
और सौगात श्रृंगार से तृप्त हो देह
संघर्ष के दावानल में कुद पड़ती
करती न फिर कोई परवाह

स्वप्न न रहता कहीं कोई
क्या खोई क्या पाई
झुठ के स्मृति चिन्ह दिखते न कोई
छुकर तुझे भर गई थी अन्तर धरातल में
विजय तिलक चमक, ललाट लगा...।



© सुशील पवार