...

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शक़ की दीवारें
ख़ुद पर से भी कभी यूँ, भरोसा उठा देती हैं,
शक की दीवारें, नफ़रत को ही हवा देती हैं।

इस क़दर होती है रंज़ूर, तबियत अहल-ए-दिल,
रौशनी ये मोहब्बत की, आने कहाँ देती हैं।

हर तरफ तग़ाफ़ुल की ही, अब्दीयत दिखाई दे,
प्यार के एहसास को ही, ये जला देती हैं।

वो जिनके प्यार की ख़ातिर, सहते रहे सदमें कई,
शक़ की दीवारें, नज़रों से उन्हीं को, गिरा देती हैं।

मोहब्बत सच्ची हो गर तो, दूरियों का वास्ता ही क्या,
मिटकर भी तो ये, तौफ़ीक़-ए-हद-ए-वफ़ा देती हैं।

© विवेक पाठक