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"मासूम-सा बचपन, बचपन की वो बातें"
ASHOK HARENDRA
© into.the.imagination
§§
मासूम-सा बचपन, बचपन की वो बातें,
लंबी-लंबी कहानियाँ, और छोटी थीं वो रातें।
लट्टू कभी घुमाये, तो कभी स्टापू कूदे,
साइकिल के पहिए को, अपनी बाइक बनाते,
कभी गेंद, कभी खो-खो, कभी आँख मिचौली खेले,
बुलाती ही रह जाती थी माँ, जब हम खेलने जाते।
न गर्मी, न प्यास लगी, न सताया भूख ने,
दोपहर में दोस्तों संग, जब तितलियाँ पकड़ने जाते,
होकर इक्कट्ठे बनाते थे सब, कागज़ की कश्तियाँ,
जब घुमड़कर होती थीं, बचपन में वो बरसातें।
सावन की मल्हारों संग, नीमों पर पड़ते थे झूले,
अपनी बारी आने को, हम देखते ही रह जाते,
छीनी टीवी ने कहानियाँ, मोबाइलों ने आँख मिचौली,
जाने कहाँ खेल गए वो, जो बचपन में खेले जाते।
गलियाँ हैं अब सूनी-सी, नीम अब वो रहे कहाँ,
कागज़ की वो कश्ती कहाँ, सूखी-सी अब बरसातें।
मासूम-सा बचपन, बचपन की वो बातें,
लंबी-लंबी कहानियाँ, और छोटी थीं वो रातें।
.•°•°•.
Click link below to read more!
#treasure_of_literature
© into.the.imagination
§§
मासूम-सा बचपन, बचपन की वो बातें,
लंबी-लंबी कहानियाँ, और छोटी थीं वो रातें।
लट्टू कभी घुमाये, तो कभी स्टापू कूदे,
साइकिल के पहिए को, अपनी बाइक बनाते,
कभी गेंद, कभी खो-खो, कभी आँख मिचौली खेले,
बुलाती ही रह जाती थी माँ, जब हम खेलने जाते।
न गर्मी, न प्यास लगी, न सताया भूख ने,
दोपहर में दोस्तों संग, जब तितलियाँ पकड़ने जाते,
होकर इक्कट्ठे बनाते थे सब, कागज़ की कश्तियाँ,
जब घुमड़कर होती थीं, बचपन में वो बरसातें।
सावन की मल्हारों संग, नीमों पर पड़ते थे झूले,
अपनी बारी आने को, हम देखते ही रह जाते,
छीनी टीवी ने कहानियाँ, मोबाइलों ने आँख मिचौली,
जाने कहाँ खेल गए वो, जो बचपन में खेले जाते।
गलियाँ हैं अब सूनी-सी, नीम अब वो रहे कहाँ,
कागज़ की वो कश्ती कहाँ, सूखी-सी अब बरसातें।
मासूम-सा बचपन, बचपन की वो बातें,
लंबी-लंबी कहानियाँ, और छोटी थीं वो रातें।
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