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विष-ग्रहण l
Image credit : An image created by Bing AI based on my prompts.
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खोजने चले थे "अमृत" ज़ब देव-आसुर

करके मंथन "क्षिर-सागर " का l

पर निकला विष "हलाहल",

प्रथम हीं क्षण,

जिसमे थी परस्पर-घृणा,

मिश्रित-द्वेष व नफ़रत,

संयुक्त देव-आसुर की l

था वह विष इतना भयावह…

…जिससे हुआ "सफ़ेद-स्मृद्ध" सा क्षिर-सागर,

स्याही सा मैला

एक हीं क्षण l

फैलने लगा "अंधकार" समग्र श्रुस्टि में l

देख "प्रारम्भ" श्रुस्टि के अंत का…

…हुए भयभीत वो सारे देवता

जिन्हें था अभिमान,

अपने प्रबल पर, अपने देवत्व पर l

हुए भयभीत वो सारे दानव, दैत्य, और असुर भी,

जो थे ख़ौफ़ के प्रतीक समग्र विश्व में l

थे नारायण भी लाचार…

ते ब्रह्मादेव भी लाचार…

…तभी अचानक,

उस "अंधियारे" से हुए महासागर में से निकले,

अंधियारे के हीं देव,

था "श्मशान" जिनका एक निवास l

कद था जिनका विशालकाय,

"जटाए" थी जिनकी इतनी प्रचंड,

की लगने लगे सारे देव-आसुर,

"चींटी" समान

उस "वैरागी" की तुलना में l

किया संग्रह उस "जटाधारी" ने वो विष,

अपनी महाकाय हथेलियों में,

और कर गए ग्रहण उस घोर-रूप "हलाहल" की एक एक बून्द,

केवल अपने "कंठ" तक…

…जिससे कहलाए वह "नीलकंठ",

करके श्रुस्टि व समग्र संसार को पुनर्जीवित l

छाया सन्नाटा "पुनः प्रकाशित" हुए क्षिर-सागर में l

हुए "स्तब्ध" सभी छोटे-बड़े देव, देवी, और असुर l

हुए प्रफुलित नारायण और ब्रम्हादेव भी l

किया हर किसीने नमन इस "जीवन-दाता" का,

जोड़ के दो हाथ,

झुका के शीश,

और बोल,

"महादेव…महादेव…l"

© Kishan Trivedi

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