...

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आज़ाद परिंदा.............
खुद से खुद को पिरोना चाहता हूं
मैं आज़ाद परिंदा होना चाहता हूं
कुछ इस कदर आज फिर उड़ना है
मैं उन्मुक्त गगन में खोना चाहता हूं

यादों के पन्नों पे अनुभवों को रखना है
मैं भी ज़िंदगी को थोड़ा जीना चाहता हूं
काश ये समस्याएं कुछ सुलझी हुई रहती
मैं भी अपने वक़्त को आज़माना चाहता हूं

ख़ामोश रातों में अश्क़ो को समेट रखा है
मैं ख्वाबों - ख्वाहिशों को परखना चाहता हूं
लबों पे हर इक प्रश्न अब काश हो गया
मैं भी अब आज़ाद परिंदा होना चाहता हूं

ज़िंदगी का फ़लसफ़ा क्यों आड़ा तिरछा है
हाल-ए-हालातों की आग बुझाना चाहता हूं
मैं ज़माने की शिकायतों को लेकर चलना है
हां मैं उन्मुक्त गगन में इक ठिकाना चाहता हूं

आज किस्से कहानी अपनी भी सुनाना है
मैं गमों के इस दौर में मुस्कुराना चाहता हूं
ज़माने की भीड़ में मैं भी कभी नाम लिखूं
मैं भी कभी आज़ाद परिंदा होना चाहता हूं

© Ritu Yadav
@My_Word_My_Quotes