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रात के आख़िरी किनारे पर....
रात के आख़िरी किनारे पर,
ख़्वाब कोई अटक कर रह गया,
संभाला तो बहुत जिंदगी ने,
मगर जीवन भटक कर रह गया।
इक़ आह लिए, क्या चाह लिए,
न जान सका, बस जान गई,
जाते हुए बेचारा, प्राण-परिंदा, देखो,
कैसे ठिठक कर रह गया।

सिसक रहा था, बिलख रहा था,
चीत्कार बहुत आवाज़ नहीं पर,
टुकड़े-टुकड़े जोड़-जोड़ वह,
नितप्रति कितना बिखर रहा था।

मर्म न जाने, गर्व न कोई, उसकी
विपदा उसकी ही बस होई,
अपनो के हाथों आप ही कितना,
छोड़ जगत वो निकल रहा था।
© विवेक पाठक