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परंपरागत इंसान।
पुज पुज कर जिस
पत्थर को ईश बनाया।
जिसे अंतस में बसाके
निज प्रेमी बनाया।
जिनके मिलन को दिन रात
खुद को विरही में सताया ।
आकर वही बिखरें दिया ,
पुजा की थाली चलने को
कहा साथ पकड़ के हाथ।
मन बेचारा उस मुर्त को
पकडें रोए जार जार बार बार।
छुटे रहे है भगवान लिए जा रहे कहां,
नादान मन बचपना छोड़े कैसे जहां,
समझ पर लगे है पर्दे समाने है खड़े
दिखें न भगवान परंपरा के अधीनस्थ
हो कर ठहर गया है वहीं इंसान।
© Sunita barnwal
पत्थर को ईश बनाया।
जिसे अंतस में बसाके
निज प्रेमी बनाया।
जिनके मिलन को दिन रात
खुद को विरही में सताया ।
आकर वही बिखरें दिया ,
पुजा की थाली चलने को
कहा साथ पकड़ के हाथ।
मन बेचारा उस मुर्त को
पकडें रोए जार जार बार बार।
छुटे रहे है भगवान लिए जा रहे कहां,
नादान मन बचपना छोड़े कैसे जहां,
समझ पर लगे है पर्दे समाने है खड़े
दिखें न भगवान परंपरा के अधीनस्थ
हो कर ठहर गया है वहीं इंसान।
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