आओ बने सुख दुख में भागीदार
व्यक्ति अक्सर अपने-पराये, कम-ज्यादा में उलझ कर रह जाता है और दयनीय जीवन जीता है, पर ध्यान रहे तुम्हें थोड़ा मिला या ज्यादा, इसकी परवाह मत करना। हां जितना मिला है, उसे अकेले न खाना। मैं अनुभव पूर्वक कहता हूं कि प्रभुकृपा से जो भी कुछ तुम्हें मिला है, उसे मिल-बांटकर खाओ। तुम्हारा यही सहज कर्म एक महान ‘यज्ञ’ बन जायेगा और तुम्हारी यह सुन्दर सी आहुति यज्ञ भगवान व परमात्मा बड़े प्रेम से स्वीकार करेंगे। तुम्हारा हर कर्म सीधे यज्ञीय बनकर प्रभु चरणों में आदर सहित अर्पण हो जायेगा।
वास्तव में प्रभु के प्रति उनके भक्तों का ऐसा अर्पण और समर्पण बड़ा अनोखा होता है। इस पवित्र भाव से देने वाले को भी अच्छा लगता है और पाने वाले को भी आनन्द आता। एक हाथ से लो और दूसरे हाथ से उसे आगे दो, इसी में कल्याण है, इसी में आनन्द है, इसी में भक्ति है। कहते भी हैं खुशी को बांटो, ताकि वह बढ़ जाये और दुख को बंटाओ, जिससे भारी दुख भी बहुत हल्का पड़ जाये। ताकि कोई दुखियारा स्वजन ज्यादा देर पीड़ा में न रह सके। इससे एक तरफ तुम्हें अनपेक्षित प्रसन्नता एवं सन्तोष मिलेगा, दूसरी ओर अगले व्यक्ति के दुख
रूई की भांति हल्का महसूस होगा, इससे कोई भी दुःखी व्यक्ति दुःख के दायरे से आगे निकल जायेगा। भान नहीं हो रहा होगा कि यह कितना बड़ा काम है, वह भी बिना किसी अतिरिक्त पुरुषार्थ के। काश! दुनिया के लोग इस सामान्य सी बात को समझ सकें, उसे हृदयंगम कर सकें। तो सारे फसाद, द्वेष, ईर्ष्या, कट्टरता हिंसा की प्रवृत्तियां विलीन हो जायेंगी। तब चारों ओर सद्भाव फूट पड़ेगा।
हमारी परम्परा रही है कि जब भी किसी के जीवन में खुशी आती है, लोग अपनी खुशी को बांटने के लिए, खुशी में सबको शामिल करने के लिये अपनों के पास आ जाते हैं। सबको शामिल करते हैं, जिससे उसकी खुशी और ज्यादा बढ़ जाये। यही नहीं जब व्यक्ति पर कोई दुख पड़ता है, तो लोग भागते हुए उस व्यक्ति के पास पहुंचते हैं। सब उसके साथ खड़े हो जाते हैं कि तुम्हारे साथ हमारी संवेदना और सहानुभूति है। तुम अपने को अकेला मत समझना। सब उसे यह भी अहसास कराते हैं कि आज जो दुख आप पर आया है, यह दुनिया में हर किसी के ऊपर आता है, दुख से कोई भी अछूता नहीं। हर एक को अपना दुख भोगना ही पड़ता है। यह भी उसे अहसास दिलाते हैं, और बताते हैं कि इस दुख की घड़ी में भी हम सब तुम्हारे साथ हैं। बस इस दुख का सामना तुम हिम्मत से करो। इतने भर से उस आदमी का मनोबल बढ़ जाता है और उसका दुख घट जाता है।
भारतीय संस्कृति की सदियों पुरानी यह अपनत्वपूर्ण परस्पर भागीदारी की गंगा प्रवाहित होती रहनी चाहिए। इसे अबाध गति से बढ़ाते रहने में ही सबकी भलाई है, तुम्हारी और तुम्हारे समाज की भी। इसी से समाज में देवत्व जागेगा, सतत सुख की अनुभूति होने लगेगी। संसार को दुःख से पार पाने की शक्ति मिलेगी। आइये! इस उच्च भावना को जीवन का अविभाज्य हिस्सा बनाएं, जिससे सारा समाज एक परिवार लगने लगे।
© राकेश कुमार सिंह
वास्तव में प्रभु के प्रति उनके भक्तों का ऐसा अर्पण और समर्पण बड़ा अनोखा होता है। इस पवित्र भाव से देने वाले को भी अच्छा लगता है और पाने वाले को भी आनन्द आता। एक हाथ से लो और दूसरे हाथ से उसे आगे दो, इसी में कल्याण है, इसी में आनन्द है, इसी में भक्ति है। कहते भी हैं खुशी को बांटो, ताकि वह बढ़ जाये और दुख को बंटाओ, जिससे भारी दुख भी बहुत हल्का पड़ जाये। ताकि कोई दुखियारा स्वजन ज्यादा देर पीड़ा में न रह सके। इससे एक तरफ तुम्हें अनपेक्षित प्रसन्नता एवं सन्तोष मिलेगा, दूसरी ओर अगले व्यक्ति के दुख
रूई की भांति हल्का महसूस होगा, इससे कोई भी दुःखी व्यक्ति दुःख के दायरे से आगे निकल जायेगा। भान नहीं हो रहा होगा कि यह कितना बड़ा काम है, वह भी बिना किसी अतिरिक्त पुरुषार्थ के। काश! दुनिया के लोग इस सामान्य सी बात को समझ सकें, उसे हृदयंगम कर सकें। तो सारे फसाद, द्वेष, ईर्ष्या, कट्टरता हिंसा की प्रवृत्तियां विलीन हो जायेंगी। तब चारों ओर सद्भाव फूट पड़ेगा।
हमारी परम्परा रही है कि जब भी किसी के जीवन में खुशी आती है, लोग अपनी खुशी को बांटने के लिए, खुशी में सबको शामिल करने के लिये अपनों के पास आ जाते हैं। सबको शामिल करते हैं, जिससे उसकी खुशी और ज्यादा बढ़ जाये। यही नहीं जब व्यक्ति पर कोई दुख पड़ता है, तो लोग भागते हुए उस व्यक्ति के पास पहुंचते हैं। सब उसके साथ खड़े हो जाते हैं कि तुम्हारे साथ हमारी संवेदना और सहानुभूति है। तुम अपने को अकेला मत समझना। सब उसे यह भी अहसास कराते हैं कि आज जो दुख आप पर आया है, यह दुनिया में हर किसी के ऊपर आता है, दुख से कोई भी अछूता नहीं। हर एक को अपना दुख भोगना ही पड़ता है। यह भी उसे अहसास दिलाते हैं, और बताते हैं कि इस दुख की घड़ी में भी हम सब तुम्हारे साथ हैं। बस इस दुख का सामना तुम हिम्मत से करो। इतने भर से उस आदमी का मनोबल बढ़ जाता है और उसका दुख घट जाता है।
भारतीय संस्कृति की सदियों पुरानी यह अपनत्वपूर्ण परस्पर भागीदारी की गंगा प्रवाहित होती रहनी चाहिए। इसे अबाध गति से बढ़ाते रहने में ही सबकी भलाई है, तुम्हारी और तुम्हारे समाज की भी। इसी से समाज में देवत्व जागेगा, सतत सुख की अनुभूति होने लगेगी। संसार को दुःख से पार पाने की शक्ति मिलेगी। आइये! इस उच्च भावना को जीवन का अविभाज्य हिस्सा बनाएं, जिससे सारा समाज एक परिवार लगने लगे।
© राकेश कुमार सिंह