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उपन्यास समीक्षा
जी मेरा मतलब है की हाथों में हाथ लेकर, देर तक यूं ही बैठे रहना। आंखों में आंखें डालकर देर तक यूं ही गाने सुनना और बाहों में झूमना। कॉफी पीते हुए किताबों और कविताओं पर बातें करना। बिना किसी प्लान के अचानक लॉन्ग ड्राइव पर चले जाना। बारिश में नाचना... कितना कुछ है ना,प्यार में।"नाम्या ने प्यार भरे रिश्ते ' की अपनी परिभाषा बताई।
"हां ये तो है! लेकिन क्या कर सकते हैं, प्यार दरअसल इन्ही खुबसूरत चीजों से शुरू हो कर आख़िर में बिस्तर पर जाकर खत्म हो जाता है।"सिया ने सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात समझाई।
🖕 किताब के अंश
' बेहया ' इस उपन्यास की लेखिका विनीता अस्थाना जी हैं। विनीता अस्थाना जी पत्रकारिता में परस्नातक हैं। इनकी लिखी 'बेहया' उपन्यास कहीं - न - कहीं लोगों की इस धारणा को की बाहर जॉब करने वाली स्त्रियां हमेशा गलत होती हैं ऐसी सोच को रौदने का काम किया है। इन्होंने सिया और यश के किरदार के माध्यम से ये दिखाया हैं कि किस प्रकार शक के कारण एक अच्छी खासी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाती है। जिस यश को सिया, राम समझती थी वो कैसे अचानक से रावन हो जाता है। एक स्त्री किसी से भी मात्र इतनी ही इच्छा रखती है, कि उसे चाहे कुछ भी न मिले बस सम्मान मिलना चाहिए कोई भी अपने आत्मसम्मान को नहीं खोना चाहता है। सिया जो अपने पति की खुशी के लिए अपनी पुरानी नौकरी, पुराने या यूं कहें कि सभी मित्र यहां तक की अपने मायके तक को छोड़ देती है। फिर भी यश उसे नीचा दिखाने से बाज नहीं आता जब की वह जानता था वो जितने भी आरोप लगाता है वो सभी बेबुनियादी हैं या यूं कहें अपने नाजायज कृत को छुपाने का तरीका जब भी वह बाहर जाती या बाहर से घर आती यश उसे गालियां देता उस पर न जानें कितने आरोप लगाता किसी पुरूष से बात करने पर उसे प्रताड़ित करता फिर भी वो चुप रहती मात्र इसलिए की उसका परिवार न टूटे उसके बच्चे खुशी से रह सकें। अभिज्ञान जो की सिया का कलीग था, जब उसने सिया को पहली बार देखा तो उसके प्रेम में पड़ गया लेकिन सिया को करीब से जान लेने पर धीरे- धीरे वो दोनों एक अच्छे मित्र बन गए सिया ने कभी अपने पर्सनल लाइफ के बारे में अभिज्ञान को कुछ नहीं बताया लेकिन अभिज्ञान सब कुछ जान गया था और उसने कभी सिया को मालूम नहीं होने दिया की उसे सब कुछ पता है।धीरे -धीरे सिया अपने आप को लाचार से सशक्त बना ली और स्वयं निर्णय लेने के लिए सज्य हो गई। और अपने दोनों बच्चों को लेकर अलग रहने लगी।
ये मात्र एक सिया और यस की कहानी नहीं है बल्की अभी भी न जाने कितनी सिया इन्हीं मानसिक संकीर्णता की शिकार हैं। हमारे समाज में आज भी जब कोई स्त्री घर के बाहर काम करने के लिए जाती है तो उसे न जाने कितने घटिया नामों से आज भी बुलाया जाता है।
इस उपन्यास का अंत मुझे अत्यधिक प्रिय लगा, इसलिए की लेखिका ने एक पुरूष को छोड़ने के बाद खुशनुमा अंत करने के चक्कर में सिया को अभिज्ञान के साथ नही नहीं किया बल्कि ये दिखाया है कि बिना पुरुष के भी मां अपने बच्चों को एक अच्छी परवरिश दे सकती हैं। ये आवश्यक नहीं है कि एक ही गलती को बार- बार दोहराया जाए। बल्की वो स्वतंत्र हैं अपने स्वाभिमान के साथ जीवनयापन करने के लिए ये उनका फैसला होगा कि वो किसी के साथ रहना चाहती हैं या नहीं।।
ये उपन्यास मात्र कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं बल्कि सत्य घटना पर आधारित है।

ऋतम्वदा 'वत्स'
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