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"दूर खड़ा चाँद"
ASHOK HARENDRA
© into.the.imagination

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चाँद!
जितना हसीन उसका नाम, वह खुद भी उतना ही खूबसूरत है। और इसकी दूधिया चाँदनी! ओ-हो! कितनी शीतल, कितनी सौम्य, काली अँधियारी रात को भी जो, रेशम-सी मुलायम कर दे, और क्यूँ न करे, ये अँधियारी रातें भी, सारे पखवाड़े तरसती हैं उस चाँद के साथ को।

प्रेमियों की, कवियों की, लेखकों की, और हर प्रेम-भरे हृदय की जो पहली पसंद है, उसका नाम है चाँद!

कभी पूनम का चाँद, कभी ईद का चाँद, कभी महबूब का चाँद, कभी मिलन का चाँद, कभी इंतज़ार का चाँद तो कभी हिज़्र का चाँद। विभिन्न रूप और ढ़ेरों नाम, लेकिन दादी-नानी के मुंह हमेशा, चंदा मामा ही कहते सुना।

कहते हैं चाँद और हमारे दरमियाँ, तीन लाख चौरासी हजार मील से भी ज़्यादा का फासला है, फिर भी लगता है जैसे, किसी बड़े आँगन के नीम से झाँक रहा हो! कभी लगता है कि महबूब की छत से ही निकलता हो!

चाँद और हम पृथ्वी-वासियों का, न जाने कैसा नाता है? जो हर धरती-वासी के दिल में वह बसता है! अंधेरी रात में ऊपर चाँद हो, और उस पर हमारी नज़र ही न जाए, ऐसा शायद ही कभी हुआ होगा। हमारी निगाहें सम्मोहित-सी, ख़ुद ब ख़ुद, उस चाँद की ओर खिंचती चली जाती हैं।

दूर खड़ा चाँद, इस धरती को युगों- युगों से निहार रहा है, और इस धरती पर गुज़रते समय के, हर पहलू को उसने देखा है। सतयुग से त्रेता, त्रेता से द्वापर, और द्वापर से अब कलयुग। कितने करीब से देखा है इसने उन लोगों को, जो कभी इस धरती पर देव अवतार रहे, या महान नरेश, या कोई पैगंबर, रंक या फिर कोई पापी। बिना किसी भेद-भाव के इसने, हर युग के हर व्यक्ति को अपनी शीतल चाँदनी से नहलाया है।

कितना जानते हैं हम, उस दमकते खूबसूरत चाँद को, जिसकी बदौलत कवियों की कविताओं को खूबसूरती मिली है?


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