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जिद्दी मन
ना मंजिल नज़र आती है न कहीं किनारा
हर कोई आगे बढ़ रहा है,लेकर एक दूसरे का सहारा
हर कोई दौड़ में है ,दिमाग में भरी उलझने हैं
लगे जैसे हर कोई किसी न किसी होड़ में है ।
आगे बढ़ना चाहते हैं या निकलना चाहते हैं
समझ नहीं आता , सफल होना चाहते हैं ,
या किसी को हराकर दिखाना चाहते हैं।
यह सब मन के खेल मन की अदाएं हैं।
कभी यह रूठता है कभी मानता है ।
कभी रुकता है तो कभी सरपट भागता है ।
ऐ मन तू इतना जिद्दी क्यूं है ?
हर समय इधर से उधर भटकता क्यूं है?
कब वह दिन आएगा जब तू शांत होगा,
काबू में होगा सब समझ ठहर जाएगा ।
तब मंजिल भी दिखेगी , रास्ता भी साफ़ होगा ,
किनारे भी मिलेंगे ,अगर तू मेरे साथ होगा ।
तब ना किसी से प्रतिस्पर्धा की दौड़ होगी
ना कहीं शोर होगा ,सामने लक्ष्य होगा, पहुंचना सरल होगा ।
बस तू एक बार समझ जा,थोड़ा झुक जा थोड़ा संवर जा
इतना ही हम सब पर तुम्हारा यह कर्म होगा
ज्योति महाजन
स्वरचित
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