...

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जिद्दी मन


ना मंजिल नज़र आती है न कहीं किनारा

हर कोई आगे बढ़ रहा है,लेकर एक दूसरे का सहारा

हर कोई दौड़ में है ,दिमाग में भरी उलझने हैं

लगे जैसे हर कोई किसी न किसी होड़ में है ।

आगे बढ़ना चाहते हैं या निकलना चाहते हैं

समझ नहीं आता , सफल होना चाहते हैं ,

या किसी को हराकर दिखाना चाहते हैं।

यह सब मन के खेल मन की अदाएं हैं।

कभी यह रूठता है कभी मानता है ।

कभी रुकता है तो कभी सरपट भागता है ।

ऐ मन तू इतना जिद्दी क्यूं है ?

हर समय इधर से उधर भटकता क्यूं है?

कब वह दिन आएगा जब तू शांत होगा,

काबू में होगा सब समझ ठहर जाएगा ।

तब मंजिल भी दिखेगी , रास्ता भी साफ़ होगा ,

किनारे भी मिलेंगे ,अगर तू मेरे साथ होगा ।

तब ना किसी से प्रतिस्पर्धा की दौड़ होगी

ना कहीं शोर होगा ,सामने लक्ष्य होगा, पहुंचना सरल होगा ।

बस तू एक बार समझ जा,थोड़ा झुक जा थोड़ा संवर जा

इतना ही हम सब पर तुम्हारा यह कर्म होगा


ज्योति महाजन
स्वरचित