...

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आशियाने
बिखरे सपने,
ढूँढते रहते "अपने"।
लगे बेहद टूटे,
न जाने किसने लूटे।

कैसे बने घर?
हुए जज़्बात पत्थर।
बाशिंदे झूठे,
जो खुद से थे रूठे।

चाहें किनारे,
देख नभ के सितारे।
हुए थे वीरान,
आशियाने जो नादान।

वो ही गलियां,
तलाशें नन्हीं कलियां।
बेहद अजीब,
लिखाया था "नसीब"।

वहीं आशियाने,
लगे कुछ जब बताने।
जाना तूम भूल,
"गिल" मिल कर धूल।
© Navneet Gill