...

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तुम्हारे खत
दिन भर रहती हैं
कहीं छुपी सी
शाम ढले ही खोल लेती हूं
तेरी यादों की गठरी
खुलते ही बिखर जाती है
मन के हर कोने में खुशबू
तेरे लिखे खतों की
कितनी मासूम मोहब्बत थी न
सोचते थे हर देखा सपना सच होता है
कहां मालूम था तब
कि इश्क़ गुलाब सही
मगर कांटों के बिछौने में सोता है
हम सच में मासूम थे
हर डगर पर
साथ चलने की बात करते थे
जानते कहां थे नादान हम
कि इश्क़ की गाड़ी
बियाबान जंगल के टेढ़े रास्तों से
होकर सफ़र करती है
कितने मोड़ों से होकर गुजरती है
और ऐसे ही किसी मोड़ पर
साथ छूटा था
तब नहीं थी ख़बर
वो पल मिलन का आख़िरी था
उम्मीद बस ये कायम रखी है अभी
जैसे मैं पढ़ती हूं रोज तुम्हारे खतों को
तुम भी मेरे खतों को पढ़
मुझे याद करते होंगे कभी।
© Geeta Dhulia