...

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न जाने....
न जाने कहाँ है मेरी मंजिल,
यू हीं व्यर्थ भागी जा रही हुं।
जो मिल नहीं सकता,
उसे पाने की स्वप्न सजा रही हुं।
हर तरफ धुआँ हीं धुआँ है,
फिर भी उष्णीष के दिये जला रही हुं।
यू हीं व्यर्थ भागी जा रही हुं......

दिल मे आँच है, अंबक मे तबका,
फिर भी मुस्कुरा रही हुँ।
बारूद के ढेर पर मै बैठी,
अपनी हयात की कीमत चुका रही हूँ।
यू हीं व्यर्थ भागी जा रही हूँ.......