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वह जो छुट्टियां थी(vacation of elders)
20-22 अप्रैल के बाद, मजाल जो कोई बच्चा जुलाई से पहले किताब को हाथ भी लगाए। आखिरी दिन स्कूल का,ऐसे निकला करते मानो जग जीत के आ रहे हों। उल्लास चरम सीमा पर, घर पहुंचने का इतना उत्साह, कि लगे रास्ते पर बस्ता- यूनिफॉर्म फेंक कर बस खेलने निकल जाएंगे। इसी सब के बीच जो कोई टॉफी की दुकान दिख जाए और जेब में 25-50 पैसे पड़े हों,बस तब तो हम ही राजा और हम ही विजेता।
घर पहुंचते ही बाहर से ऐलान कर देना कि आज से छुट्टियां हैं।यह ऐलान सुन मानो मोहल्ले और घर वालों के पांव से कुछ क्षण के लिए जमीन खिसक जाती थी। फिर धूप-छांव, लू-आंधी, सुबह-शाम सब भूल, गेंद और बल्ला ले ऐसे निकला करते मानो गावस्कर और कपिल देव निकल रहे हैं।
अगर बल्ला ज़रा तेज से ज़मीन पर भी पड़ता तो पूरा मोहल्ला बाहर आकर खिड़की के काँच और गमले की ओर देखता।एक-एक काँच को छूने के बाद तथा गमले की एक-एक पत्ती को देखकर तसल्ली करके ही आंटी अंदर जातीं,अंदर जाते-जाते एक दफा आंटी हमारी ओर पलट कर गुस्से से दिखतीं जरूर।
मगर हमारी क्या गलती बल्ला हमसे बड़ा होता और जो उससे नहीं खेल पता वह चुपके से घर से पिटना ले आता, बल्लेबाज़ी करने के लिए।
सुबह-तड़के सत्तू और पंजीरी खाकर जो निकलते, फिर कुछ समय के लिए दोपहर का खाना खाने पकड़ कर लाए जाते, मानो कोई गाय-भैंस पकड़ कर रखा हो, अपने मन से तो रात को ही आते खाना खाकर घर पर जो सोते तो सीधा सवेरे खिलौना लिए ही जगे मिलते।
अब यह मोहल्ले का शोर-गुल तो शुरुआत के कुछ 15-20 दिनों का होता था। दरअसल इन दिनों में माता-पिता खुद को मानसिक तौर पर तैयार करते की नाना-नानी के घर पर वह हमें कुछ नहीं कह सकते और जो दादा-दादी के समक्ष गलतियां निकालीं तो दादा-दादी उन्हें घर के बाहर निकाल देंगे।
भाई जो भी हो ठाठ तो अपने थे!
बात अगर ऐशो-आराम की करें तो नाना-नानी के घर पहुंचने से लेकर वापस आने के बाद तक लगाम हमारे हाथ में हुआ करती,वापस आकर स्कूल खुलने से लेकर अगली छुट्टियों तक का सफर तो बड़ा दर्दनाक हुआ करता था। खैर छोड़ो मम्मी-पापा की फटकार क्यों नाना-नानी, दादी-दादी की पुचकार को याद करते हैं।
तो शुरुआत के 20 दिन गुज़र चुके अब सब मामा-मामी, नाना-नानी, दादी-दादी के यहां जा रहे हैं।
मेरा मन तो तब खिलखिला उठता है जब वह ट्रेन का सफर याद आता है। हर छुट्टियों में जब नाना नानी के घर जाया करते थे।बोगी रिज़र्वेशन वाली, उसमें 4 लोग मम्मी-पापा, छोटा भाई और मैं। ठहरिये जी!यह तो वह लिस्ट है जो स्थाई है, बाकी रास्ते में न जाने कितने
चाचा-चाचा, मामा-मामी और भैया-भाभी मंजिल पहुंचने तक बन जाते थे।खैर, हमारे लिए तो अच्छा ही होता था। अलग-अलग प्रकार के पकवान उस मध्यम वर्ग की बोगी, की खिड़की वाली सीट तक पहुंच जाते और हम ऐसे अकड़ कर बैठते मानो कुंवर सा बैठे हैं।
ट्रेन का सही था, कहीं कोई चना-ज़ोर गरम दिलाता तो कोई ऑरेंज कैंडी।
उसके बाद ट्रेन से उतरते ही नाना सामने खड़े मिलते।नाना कभी हमें लेने अकेले नहीं आया करते,हमेशा 5-6 लड़के होते जो हमारा सामान उठाते।
उन्हीं में से एक के कंधे पर हम भी बैठ जाते।
नानी घर में व्यंजनों के साथ और आरती की थाली तथा एक लोटे में जल लिए इंतजार करती रहतीं। सबसे गले मिलने की विहवलता नानी को हम लोगों से ज्यादा होती,लेकिन मज़ाल जो कोई बिना जल छिड़कवाए डेहरी डाके,ऐसा अपराध होने पर नानी उस अपराधी को संगोपान स्नान कराकर ही अंदर आने देतीं।आरती हो जाने के बाद,हम नाना-नानी को साथ खड़ा करके उनके चरण स्पर्श करते, उतनी ही देर में मौसी-मौसाजी लोग आ जाते।हाथ-मुंह धुलकर सब चाय पीते।
थोड़ी देर बाद खाना होता।रात को 9 बजे के बाद सभी लोग 11बजे तक बैडमिंटन खेलते, पापा और मौसाजी हमें गिल्ली-डंडा खेलने सिखाते।हम बच्चे तो थककर सो जाते, मगर सभी बड़े फिल्म देखने में जुटे रहते। मज़ा तो तब आती थी, जब हम छोटे-छोटे बच्चे नाना के साथ 5 बजे जाग जाते और नहाकर,पूजा करके सभी बड़ों को नाना जी के आदेश से पानी के छीटे मारकर जगाया करते।नानी के घर पर आम का पेड़ हुआ करता था।मई में जब दोपहर-रात को आंधी चलती,तो नाना,मेरा छोटा भाई और मैं मुंह पर कपड़ा लपेटकर,जेब में लू से बचने के लिए प्याज लेकर और आंखों को धूल से बचने के लिए धूप वाला चश्मा लगाकर निकलते,ताकि गिरे हुए आम कोई और ना ले जाए। अगर कोई बच्चा आम उठाने आता तो आम अच्छे नहीं हैं बोलकर उससे आम ले लेते ।कोई बड़ा आता आम की ओर तो लाठी लेकर उसको दौड़ा देते थे।यह सब हिंसा सिर्फ अनजान लोगों के लिए,जान पहचान वालों को तो हमारे आने की खुशी में नाना आम भेंट करके आते थे।बीते उन दिनों का अलग रोमांच था।
नाना-नानी के घर पर बहुत लड़ प्यार था।
अपने बड़ों के बचपन की लिखी मैंने छोटी सी
झांकी है। पढ़ी जो अपने यह नहीं कोई मनगढ़ंत कहानी,बड़े-बुज़ुर्ग ने जी ये,"वो जो छुट्टियां थीं"।