...

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कुछ अनकही बातें
कभी-कभी मन इतना बेचैन क्यों हो जाता है?
कितना भी समझाओ पर तुम्हारी एक न सुनता है।
कभी-कभी अपनों को भी, अपनी परेशानी नहीं बता सकते।
कोशिश भी करते हो तो तुम्हारा मन तुम्हे रोक देता है।
ऐसा क्यों होता है की तुम चाह कर भी नही रो पाते?
बस हस्ते-हस्ते सब स्वीकार कर लेते हो,
चाहे वो दुःख हो या अपमान।

एक समय के बाद सब कुछ एक माया जाल सा लगता है।
तुम कौन हो, तुम्हे खुद पता नही रेहता है।
तुम कौन बनते जा रहे हों तुम्हे खुद नही समझ आ रहा होता है।
तुम बस समय के चक्र से बांध जाते हो।
चाह कर भी कुछ नही कर पाते हो।
जीवन के दु:ख भी अब तो आम सी बातें लगने लगती है,
तुम इन सबसे बहुत ऊपर उठ चुके होते हो।
दु:ख और सुख दोनो के महत्त्व,अच्छे से समझने लगते हो।
दूसरो का दुःख भी तुम्हे अपना सा लगता है,
उनकी खुशी में तुम भी खुश होते हो।
और कही न कही यही तुम्हे उन स्वार्थी लोगो से अलग बनाता है।


ईश्वर प्रेम तुम्हारे लिए प्रथम हो जाता है।
दुनिया तुम्हे बस फरेब और परीक्षाओं से भरी लगती है,
जहा हर मोड़ पर प्रथम आना तुम्हारे लिए अनिवार्य हो जाता है।
कौन अपना है और  कौन पराया,
इसे तुम्हे कोई मतलब नहीं होता , तुम्हारे लिए सब एक समान हो जाते है
क्योंकि बातें तो कभी-कभी अपनों कि भी चुभ जाती है
और अब तुम उस मोड़ पे खड़े होते हो जहा से तुम्हे जाना तो है पर तुम वापस जा नही पाते हो।
और तुम्हे समझ नही आता तुम अपने आपको ढूंढ रहे हो,
या , तुम अपने आपको बहुत पहले ही खो चुके हो।
© नैनिका